Editor in Chief: Rajesh Patel (Aapka news Star)
मध्य प्रदेश: नवम्बर 30, 2025
Rajeev Dixit: राजीव दीक्षित जी ने अपनी जवानी, प्रतिभा और जीवन को मातृभूमि की बलिवेदी पर समर्पित कर दिया...
Rajeev Dixit।। 30 नवम्बर केवल कैलेंडर की तारीख नहीं, बल्कि उस व्यक्ति की अमर स्मृति है जिसने अपने जीवन से यह सिद्ध किया कि सच्चे देशभक्त कभी मरते नहीं—वे युगों तक मार्ग दिखाते रहते हैं।
राजीव दीक्षित जी भले आज हमारे बीच देह रूप में उपस्थित न हों, लेकिन उनके जीवन का प्रकाश आज भी अनगिनत लोगों के विचारों और व्यवहार में सहज रूप से दिखाई देता है। उनके शब्दों ने न जाने कितने मनुष्यों में स्वाभिमान और जागृति का भाव उत्पन्न किया है—जो आज भी चुपचाप उनकी प्रेरणा से अपना मार्ग तलाश रहे हैं।
उनकी बातों का प्रभाव केवल भावनाओं तक सीमित नहीं था; वह व्यक्ति के सोचने के ढंग को धीरे-धीरे रूपांतरित कर देता था। और यही उनकी सबसे बड़ी शक्ति थी—वे ज्ञान को केवल साझा नहीं करते थे, वे विचारों को दिशा देते थे।
राजीव दीक्षित जी ने अपनी जवानी, प्रतिभा और जीवन को मातृभूमि की बलिवेदी पर समर्पित कर दिया। महात्मा गांधी आश्रम वर्धा (महाराष्ट्र), इलाहाबाद, हरिद्वार आदि उनके कर्मस्थल के मुख्य केंद्र थे, जबकि उनका जन्म अलीगढ़, उत्तर प्रदेश में हुआ। माता मिथिलेश और पिता श्री राधेश्याम दीक्षित के तीन संतानें—राजीव, प्रदीप और लता—में राजीव सबसे बड़े थे।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से B.Tech करते समय ही उनके भीतर राष्ट्र के लिए कुछ कर गुजरने की तीव्र तमन्ना जाग गई। भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर मंडरा रहे खतरों ने उनमें गहरा आक्रोश उत्पन्न किया। उन्होंने माँ भारती को मानसिक गुलामी और विदेशी षड्यंत्रों से मुक्त कराने के लिए "आजादी बचाओ आन्दोलन" को स्वर दिया।
राजीव दीक्षित ने राष्ट्र को आर्थिक महाशक्ति बनाने के संकल्प के साथ आजीवन ब्रह्मचारी जीवन अपनाया। खादी और स्वदेशी का आग्रह उनके जीवन का मूल था। पं. रामप्रसाद बिस्मिल और चंद्रशेखर आज़ाद की तरह उन्होंने स्वदेशी विचारधारा को उन्नत किया, प्रसारित किया और अपने जीवन की आहुति राष्ट्र-यज्ञ में समर्पित की।
विदेशी कंपनियों की लूट के विरोध से लेकर भारत के गौरवशाली अतीत को युवाओं के बीच जागृत करने तक, उनकी वाणी ने देशभक्तों में स्वाभिमान और आत्म-विश्वास भर दिया। राजीव दीक्षित अक्सर कहा करते थे, "हम विज्ञान और धन-संपदा में सबसे आगे थे, पर जीवन में चालाकी नहीं सीख पाए। यही हमारी असली चुनौती है।"
उनका जीवन एक साधु के जीवन जैसा था। दो जोड़ी कपड़े, एक छोटा सा थैला और एक अटूट संकल्प—बस यही उनका समूचा संसार था। वे घरों में कम और ट्रेनों में अधिक रहते थे, क्योंकि यात्रा ही उनका धर्म था और लोगों तक सत्य पहुँचाना ही उनका कर्तव्य। वे कहा करते थे, “जिस दिन ज्ञान का प्रकाश घर-घर पहुँचेगा, उसी दिन भारत फिर उठ खड़ा होगा।”
वे पाश्चात्य संस्कृति, भाषा और चिकित्सा—तीनों के कट्टर विरोधी रहे, और जीवन के अंतिम क्षण तक अपने सिद्धांतों से जरा भी विचलित नहीं हुए। सिद्धांतों पर अडिग रहने के कारण उन्हें अनेक बाधाओं, तूफानों और कठोर परिस्थितियों का सामना करना पड़ा—यहाँ तक कि कई बार इन संघर्षों ने उनके अस्तित्व को भी चुनौती दी।
फिर भी, न उन्होंने कभी समझौता किया, न पलायन का मार्ग चुना। सिद्धांतों के प्रति अटल रहना क्या होता है—यह उनके जीवन से बेहतर कोई नहीं सिखा सकता। उनका पूरा जीवन हम सबके लिए एक आदर्श, एक प्रेरणा और सत्यनिष्ठा का जीवंत प्रमाण है।
वे ऐसे विलक्षण व्यक्तित्व थे, जिनकी वाणी में अद्भुत आकर्षण और ज्ञान का समुद्र हिलोरें मारता था। उनके किसी भी व्याख्यान का प्रभाव ऐसा होता था मानो समय ठहर गया हो—हज़ारों की भीड़ जहां की तहां रुक जाती, और 4–5 घंटे नहीं, कई बार 6–8 घंटे तक लोग बिना थकान, बिना जल-पान, बिना किसी व्यग्रता के उन्हें सुनते रहते।
इतिहास जैसा विषय, जिसे आमतौर पर लोग नीरस मानते हैं—जब वे उस पर बोलना शुरू करते, तो पूरा वातावरण मंत्रमुग्ध हो उठता था। श्रोता उनकी हर अगली पंक्ति की प्रतीक्षा उसी उत्सुकता से करते, जैसे कोई साधक अपने गुरु के अगले उपदेश की प्रतीक्षा करता है।
उनकी ज्ञान-यात्रा का विस्तार इतना व्यापक था कि अर्थशास्त्र से लेकर भूगोल तक, और इतिहास से लेकर वर्तमान की जटिल परिस्थितियों तक—कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं था, जिसमें उनकी पकड़ असाधारण न हो। इसीलिए लोग उन्हें “चलती-फिरती लाइब्रेरी” या “जीवित विश्वकोश” कहना बिल्कुल अतिशयोक्ति नहीं मानते थे।
वे सिर्फ एक वक्ता नहीं थे—वे एक जागृति थे, एक चेतना थे। उनकी वाणी से मजदूर भी सीखता था, किसान भी; वैज्ञानिक भी प्रेरित होता था और प्रोफेसर भी; बच्चे भी समझ लेते थे और डॉक्टर, इंजीनियर भी उतनी ही गंभीरता से उनकी बातों को आत्मसात करते थे।
राजीव भाई केवल ज्ञान नहीं बाँटते थे—वे उस ज्ञान को जीते थे, उसे साधते थे, और उसी साधना ने उन्हें देश के लिए एक अमिट धरोहर बना दिया।
30 नवम्बर 2010—वही तिथि जो उनके जन्मदिन की पावन स्मृति लिए आती है, उसी दिन राजीव भाई हमें हमेशा-हमेशा के लिए छोड़कर चले गए। यह संयोग नहीं, मानो उनके जीवन का पूर्ण चक्र स्वयं ईश्वर ने उसी तिथि पर पूर्ण कर दिया हो।
जब यह खबर उनकी माता तक पहुँची, तो उनका हृदय जैसे टूटकर बिखर गया।
मां ज़ोर-ज़ोर से बिलख रही थी, और पिताजी भी अपने होश-ओ-हवास में नहीं थे—उनकी आँखों से आँसू रुक ही नहीं रहे थे।
मां बार-बार रोते हुए पुकार रही थी—
“आँखें खोल राजू… उठ जा राजू…”
कुछ देर बाद फिर चीखकर बोली—
“उठ जा राजू… अब तो उठ जा… आज तेरा जन्मदिन है… तेरे जन्मदिन वाले दिन ऐसा नहीं हो सकता…!”
उस क्षण का दर्द, वह मातृत्व की पुकार, वह असहनीय शोक—वहाँ उपस्थित हर व्यक्ति का हृदय चीर कर रख दे रहा था।
सामान्य व्यक्ति के जाने के बाद शायद केवल एक मुट्ठी राख ही शेष रहती है,
लेकिन भाई राजीव जी जैसे तपस्वी देशभक्तों के जाने पर राख नहीं—एक वैचारिक क्रांति जन्म लेती है।
ऐसी क्रांति, जो भारत को पुनः विश्वगुरु बनाने की शक्ति रखती है…
जो भ्रष्ट व्यवस्थाओं की जड़ें हिला देती है…
जो समाज में सम्पूर्ण परिवर्तन की चिंगारी बनकर फैलती है।
उनके बलिदान दिवस पर यही हमारा संकल्प होना चाहिए कि
हम उनके स्वप्नों को केवल शब्दों में नहीं,
बल्कि अपने जीवन के आचरण में साकार करेंगे।
उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि फूलों से नहीं,
उस स्वदेशी मार्ग के पालन से होगी
जिसे उन्होंने अपने प्राणों की आखिरी सांस तक जिया—
और जिसकी प्रेरणा आज भी लाखों दिलों में धधक रही है।
राजीव दीक्षित जी ने आयुर्वेद को सरल और व्यवहारिक भाषा में समझाया**, ताकि हर व्यक्ति इसे अपने जीवन में आसानी से अपनाकर **स्वास्थ्य और जीवनशक्ति** प्राप्त कर सके। अत: उनका चेन्नई व्याख्यान जरुर सुने जो आयुर्वेद पर आधारित अद्भुत स्वास्थ्य व्याख्यान है और उस हिसाब से जीवन को स्वस्थ्य व सुखी बनाए
Rajesh Patel: राजीव दीक्षित समर्थक
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